30 दिसंबर 2010

नववर्ष 2011


एक लम्बे अर्से के बाद नई पोस्ट लिख राहा हूँ , कुछ समय से जीवन में बडे नाटकीय से घटनाक्रम चल रहे थे । इस कारण थोडा विचलित था । परिस्थतियाँ ही तो हैं जो जीवन बनातीं हैं , हमारे निर्णयों से संचालित होती है । खैर नववर्ष का आगमन हो रहा है , वर्ष २०११ सभी के जीवन में खुशियों , सफ़लता व समृद्धि लाने वाला हो । मैंने भी नऎ साल के लिये कुछ संकल्प लिये हैं ।उन्हें यहाँ सार्वजनिक करना ठीक नहीं है ।
बीता हुआ वक्त हमें क्या सिखा कर जाता है ? शायद कुछ सबक हमें उन से शिक्षा लेनी चाहिये ।
आप अपने जीने के तरीके को बदल सकते हैं , अपने विचारों को अधिक उन्नत बना सकते हैं,
अच्छी प्रेरणादाई पुस्तकें पढने की योजना बना सकते हैं , अपनी बुरी आदतों को छोड्ने का
संकल्प ले सकते हैं । सच मानिये इससे बेहतर तरीका नही हो सकता नववर्ष का स्वागत
करने का ।
जब कभी भी आप अपने आप को असहाय मह्सूस करें , जीवन अकारण प्रतीत होता हो तो
अपने माता पिता की तस्वीर देखें , उनकी आँखों मे आपके प्रति स्नेह , प्रेम के साथ साथ
उम्मीदों की रेखायें भी दिखाई देंगी । यही आँखे आपको जीवन में कुछ कर गुजरने की प्रेरणा
देती हैं ।
जब कभी भी आपका अपने पर से विश्वास हट जाये , उन महान लोगों की जीवनी पढें जिन्होंने
अभावों में रह कर भी सफ़लता प्राप्त की और इस संसार को बहुत कुछ दिया । आप शुरूआत
महात्मा गांधी व रामप्रसाद बिस्मिल की जीवनी से कर सकते हैं । व्यक्तिगत जीवन में मेरे दादा जी मेरी प्रेरणा के’ स्त्रोत रहे हैं उनके अलावा मुझे भगत सिंह ,स्टीफ़न हौकिंग्स , अब्दुल कलाम के
जीवन भी प्रेरणा मिली ।
जब आप पायें कि जीवन अत्यंत जटिल हो गया है , आप व्यस्तता के बुखार से ग्रसित हो रहे हैं
तब आप उनके साथ कुछ वक्त गुजारें जिनसे आप प्यार करते हैं, ये वाकई आपको तरोताज़ा कर
देगा ।
जब आप पायें कि परिस्थितियाँ अब आपके नियंत्रण में नहीं हैं, तब समय निकाल कर मंदिर
जायें , अपने आपको अपनी समस्त परेशानियों समेत भगवान के आगे समर्पित कर दें और
भरोसा रखें कि सब कुछ अच्छा हो जाएगा ।

24 अक्तूबर 2010

मध्यांतर

क्या गरीब को इस दुनियाँ में,
जीने का अधिकार नहीं है ।
पग पग पर मैं मार खा रहा
कहते ये कुछ मार नहीं है ॥
तू रिक्शे मैं बैठ रहा ,
मैं हूँ रिक्शे को खींच रहा।
उचित मूल्य मुझे नहीं मिलता,
तू है पैसै को भींच रहा ॥
उद्योग अनेक लगे तेरे,
मुझको निजी श्रमिक बतलाता ।
अपार धन संग्रहित तुझ पर,
मुझे कोई सारोकार नहीं है
क्या गरीब को इस दुनियाँ में,
जीने का अधिकार नहीं है ॥
एअर कंडीशन बंगले तुम्हारे,
मुझे फ़ुट्पाथ नसीब नहीं है।
हीटर गर्म करें तुझको ,
मुझे अलाव नसीब नहीं है ॥
श्वेत वस्त्र मंच के ऊपर ,
सम्भाषित करता निज ब्यान ।
मैं किस मुख से उच्चारित कर दूँ ,
यह सरकार ,सरकार नहीं है ,
क्या गरीब को इस दुनियाँ में,
जीने का अधिकार नहीं है ॥
अग्रसर तू उन्नति पथ पर,
मैं हूँ पीछे को भाग रहा ।
मध्यांतर इतना गहन हुआ,
फ़िर भी नहीं कोई जाग रहा ॥
यदि यही क्रम उन्नत पथ का,
पौराणिक बिन्दु सही होंगे ।
कलियुग का अंत निकट मैं है,
न हम ही होंगें, न तुम ही होगे ॥
जीवन मरण विधि विधान है,
’ब्रजेश’ किसी का अधिकार नहीं है,
क्या गरीब को इस दुनियाँ में,
जीने का अधिकार नहीं है ॥

18 अक्तूबर 2010

खुद रो जाता हूँ ।





हो तुम दूर मुझसे , मिल नहीं पाता हूँ ।
बातें तो हो जातीं हैं लेकिन देख नहीं पाता हूँ ।
बिन तुम्हारे , यादों के सहारे पागल सा हो जाता हूँ ।
ख्वाबों के आशियाँ से उन पलों को खोज लाता हूँ
जहाँ अपनी रूह के नज़दीक तुम्हें पाता हूँ ।
सुबह सुबह मंदी धूप में चलते देख
तुम्हारी परछाई पीछे पीछे चल देता हूँ , और
तुम्हें न पाकर ठगा सा रह जाता हूँ ।
चला जाता उन हलके हलके सफ़ेद बादलों में
जहाँ खडी हो तुम लिये अपनी बाँहों का हार ,
लेकिन तुम्हें वहाँ न पाकर मायूस सा हो जाता हूँ ।
पाकर नज़दीक तुम्हें छूने की मैं कोशिश करता हूँ
हाथ आती है एक बेदर्द हवा और मैं तन्हा रह जाता हूँ ।
देखता हूँ तुम्हारी तस्वीर को , तुममें खुद को पाता हूँ
आइने में अक्स भी तुम्हारा ही बनाता हूँ ।
जिन रास्तों पर कभी चले थे साथ साथ , हाथों में लिये हाथ
अब वहाँ से अकेले गुजर जाता हूँ ।
जिन रास्तों पर करता था तुम्हरा इंतज़ार
उन रास्तों को भी तुम्हारी राह तकता हुआ पाता हूँ ।
लेता हूँ जब साँसे सिर्फ़ जीने के लिये
ज़िन्दगी को तुम्हारा कर्जदार पाता हूँ ।
दूर खडी जब देखती हो मेरी ओर सज़ल आँखों से
पास आकर आँसू पौंछ्ने की कोशिश करता हूँ
और खुद रो जाता हूँ ।

11 अक्तूबर 2010

स्तुति


जय जगदम्बे अम्बिका,
हरायु मात क्लेश।
कलम विराजो सरस्वती
ब्रह्मा विष्णु महेश।।
ब्रजेश ह्र्दय से आस तुम्हारी करता ।
शीश झुकाऊँ चरण में, ध्यान तेरा ही धरता॥
पथवारी , व्रतवारी और सुमिरू कोटावारी ।
बुद्धि विवेक संकुचित , है शब्दों से लाचारी ॥
पवनपुत्र शक्ति दीजै , काली माँ करि रक्षा ।
अन्तृद्वंद मचा भरत में , और न लेउ परीक्षा॥

10 अक्तूबर 2010

मेरे दादा जी



मेरे आदर्श मेरे दादा जी हैं । जो कि एक सेवानिवृत पुलिस
अधिकारी हैं । मैं यहाँ उनके द्वारा रचित हास्य कविताऎं
, व्यंग कविताऎं उनके उपनाम " ब्रजेश " के अन्तर्गत
प्रस्तुत कर रहा हूँ , आशा है आप पसन्द करेंगे.............

सर्वप्रथम प्रस्तुत है उनका परिचय (वाह री ब्लाग दुनिया हम
जिनके परिचय के मोहताज़ हैं , उनका परिचय करा रहें हैं...)
उन्ही के शब्दों में.............

उत्तर प्रदेश के मथुरा नगर के चौरासी कोस की परिधी से
आच्छादित ब्रज के गाँव भगतुआ डाकखाना कोटा परगना
हाथरस जनपद महामाया नगर के एक साधारण कृषक परिवार
में स्वर्गीय श्री ज्योतिराम जाट के यँहा ३० जनवरी १९४० को
जन्म हुआ । गणेश सिंह इंटर कालेज मुरसान से सन १९५९
में इंटरमीडिएट की परीक्षा उत्तीर्ण कर तदुपरान्त १९६० से
उत्तर प्रदेश पुलिस में आरक्षी पद पर सेवा प्रारम्भ की तथा
वर्ष १९७४ में सब इन्सपेक्टर पद पर प्रोन्नत हुआ ।सन १९९८
में मेरठ परिक्षेत्र के उपमहानिरीक्षक के रीडर पद से सेवानिवृत
हुआ । शिक्षा ग्रहण करने में उत्सुकता के कारण वर्ष १९८६
में बी ए तथा वर्ष १९९३ में एल एल बी की परीक्षा चौधरी चरण
सिंह विश्वविद्यालय मेरठ से प्राप्त उत्तीर्ण की ।
प्रारम्भ से ही साहित्य , पारिवारिकता एवं समाजिकता से
सम्बद्ध रहे । कर्तव्य ही पूजा है तथा पुलिस वर्दी एवं शासन
के सर पर ताज की मर्यादा एवं आन को सुरक्षित रखने के
निमित्त सर्वदा चिंतित रहे । जीवन अत्यंत मितव्ययी एवं
शालीनता से यापन करते हुए अनुशासन जीवन का मूलधार
रहा । वर्तमान में गाँव में रहकर धर्म कर्म में संलग्न हैं ।

बीरी सिंह "ब्रजेश"

08 अक्तूबर 2010

कश्मकश................


पहले सारे प्यार इकतरफ़ा ही होते हैं (खैर बाद में दोतरफ़ा भी हो
जाते हैं) तो प्रस्तुत एक प्रेमी की कश्मकश................





तुमको उगते देखा था नये सवेरे की तरह
ढलते भी देखा पुरानी शाम की तरह
पाया था नज़दीक तुमको सांसों के जितना
देखा था दूर भी सितारों तक
खोजा था तुमको तन्हाई में भी
सोचा था तुमको सोती हुई रातों में भी
सोचा था आज खत्म कर दुंगा इस सिलसिले को
दफ़ना दुंगा सारी यादों को दर्द की ज़मीन में कहीं
दबा दुंगा सारे अरमानों को रखकर दिल पर पत्थर
ना आउंगा सामने बन कर एक तस्वीर
रह जाउंगा ख्वाबों में सिर्फ़ एक परछाई बन कर
ना बहाउंगा एक अश्क भी तुम्हारे लिये
रोक लुंगा उस सैलाब को भी खुद की तरह

06 अक्तूबर 2010

सुकून आया जैसे...........


मंजिल तक पहुँच कर लौट आया जैसे
प्यासा था कूऎ के पास जाके लौट आया जैसे
बेचैन था सदियों से तुझे पाके चैन आया जैसे
पाया था जो मोती उसे खो आया जैसे
सरफ़रोशी की तमन्ना लेकर चला था तेरे पीछे
वापस सर झुका कर लौट आया जैसे
बरसों से बहते हुए तनहा आँसुओं को
तेरे आँचल से पौंछ आया जैसे
हर पल खोया रहता था तेरे खयालों में
बेखुदी में उस बादल को तोड आया जैसे.............

03 अक्तूबर 2010

अंजानी राहों पर .....


कभी कभी हम ज़िंदगी में ऎसे मोड पर आ जाते
जब ये ही स्पष्ट नहीं होता कि क्या कर रहे हैं ,
क्यों कर रहे हैं कहाँ जा रहें...........
प्रस्तुत हैं कुछ मौलिक संवेदनायें.....

ना जाने क्यों मैं याद करता हूँ
फ़िर अचानक भूल जाता हूँ ।
आगे बढता अनजान रास्तों पर
पीछे मुढ कर देखता हूँ
देखता हूँ उस निशान को जो आगाज़ था
ब धुंधला गया , मुरझा गया ।
जो था कभी सुंदर , स्वनिल
ख्वाब जो थे अनबुने उधाड्ने लगा हूँ ।
पर न जाने क्यों पीछे मुड कर देखता हूँ
देखता हूँ आगे जब उस क्षितिज को
जो है शायद भ्रम , पर है शायद
पहुँच पाउंगा या नहीं , पर है क्षितिज
बड्ता जाता हूँ उसकी ओर पाने के लिये
फ़िर पीछे मुडकर देखता हूँ पाता हूँ कि
आगाज़ कहीं खो गया है धुंधला भी नहीं है
दिखता ही नहीं है पता नहीं कभी था या नहीं
ना जाने क्यों मैं याद करता हूँ
फ़िर अचानक भूल जाता हूँ ।
आगे बढता हूँ अंजानी राहों पर ,
अनजाने क्षितिज की ओर , भ्रम की ओर
और पाता उस क्षितिज को उतना ही दूर
फ़िर पीछे मुड कर देखता हूँ आगाज़ की ओर
जो कभी था , शायद पर भ्रम लगता है ।
ये भ्रम जो सत्य था , उस भ्रम से अलग है
पर ये है तो "शायद" ही
फ़िर भूल कर आगाज़ से आगे बड्ता हूँ
क्षितिज की ओर जो कहीं है शायद..........

02 अक्तूबर 2010

लालबहादुर शास्त्री


अपने एक मित्र माननीय सुधीर चौधरी जी की आलोचना से
त्रस्त होकर मैं उनके कुछ विचार यहाँ प्रस्तुत करता हूँ ।
लाल बहादुर शास्त्री जी हमारे देश के कर्मठ , सच्चे एवं
ईमानदार प्रधान मंत्री थे । वे जीवन पर्यन्त देश की समस्यओं
के साथ संघर्षरत रहे.....और इसी संघर्ष में उन्होनें अपने प्राणों की आहुति दी । अपने व्यक्तिगत जीवन में अशांति होते हुए भी
उन्होने देश में शांति की स्थापना में लगे रहे........
वे आज भी अपने देश में अपेक्षित हैं.....................
आइये उस धरती के लाल को नमन करें.........
प्रस्तुत हैं कुछ उनसे समबन्धित कुछ प्रेरक प्रसंग॥
किसी गाँव में रहने वाला एक छोटा लड़का अपने दोस्तों के साथ गंगा नदी के पार मेला देखने गया। शाम को वापस लौटते समय जब सभी दोस्त नदी किनारे पहुंचे तो लड़के ने नाव के किराये के लिए जेब में हाथ डाला। जेब में एक पाई भी नहीं थी। लड़का वहीं ठहर गया। उसने अपने दोस्तों से कहा कि वह और थोड़ी देर मेला देखेगा। वह नहीं चाहता था कि उसे अपने दोस्तों से नाव का किराया लेना पड़े। उसका स्वाभिमान उसे इसकी अनुमति नहीं दे रहा था।

उसके दोस्त नाव में बैठकर नदी पार चले गए। जब उनकी नाव आँखों से ओझल हो गई तब लड़के ने अपने कपड़े उतारकर उन्हें सर पर लपेट लिया और नदी में उतर गया। उस समय नदी उफान पर थी। बड़े-से-बड़ा तैराक भी आधे मील चौड़े पाट को पार करने की हिम्मत नहीं कर सकता था। पास खड़े मल्लाहों ने भी लड़के को रोकने की कोशिश की।

उस लड़के ने किसी की न सुनी और किसी भी खतरे की परवाह न करते हुए वह नदी में तैरने लगा। पानी का बहाव तेज़ था और नदी भी काफी गहरी थी। रास्ते में एक नाव वाले ने उसे अपनी नाव में सवार होने के लिए कहा लेकिन वह लड़का रुका नहीं, तैरता गया। कुछ देर बाद वह सकुशल दूसरी ओर पहुँच गया।

उस लड़के का नाम था ‘लालबहादुर शास्त्री’।

छः साल का एक लड़का अपने दोस्तों के साथ एक बगीचे में फूल तोड़ने के लिए घुस गया। उसके दोस्तों ने बहुत सारे फूल तोड़कर अपनी झोलियाँ भर लीं। वह लड़का सबसे छोटा और कमज़ोर होने के कारण सबसे पिछड़ गया। उसने पहला फूल तोड़ा ही था कि बगीचे का माली आ पहुँचा। दूसरे लड़के भागने में सफल हो गए लेकिन छोटा लड़का माली के हत्थे चढ़ गया।

बहुत सारे फूलों के टूट जाने और दूसरे लड़कों के भाग जाने के कारण माली बहुत गुस्से में था। उसने अपना सारा क्रोध उस छः साल के बालक पर निकाला और उसे पीट दिया।

नन्हे बच्चे ने माली से कहा – “आप मुझे इसलिए पीट रहे हैं क्योकि मेरे पिता नहीं हैं!”

यह सुनकर माली का क्रोध जाता रहा। वह बोला – “बेटे, पिता के न होने पर तो तुम्हारी जिम्मेदारी और अधिक हो जाती है।”

माली की मार खाने पर तो उस बच्चे ने एक आंसू भी नहीं बहाया था लेकिन यह सुनकर बच्चा बिलखकर रो पड़ा। यह बात उसके दिल में घर कर गई और उसने इसे जीवन भर नहीं भुलाया।

उसी दिन से बच्चे ने अपने ह्रदय में यह निश्चय कर लिया कि वह कभी भी ऐसा कोई काम नहीं करेगा जिससे किसी का कोई नुकसान हो।

उस लड़के का नाम था ‘लालबहादुर शास्त्री’।


गांधी जी

आज भारत में गांधी जी के सिद्धांतों की कितनी
प्रासंगिकता है ?
अक्सर इस प्रश्न पर हम विचार २ अक्टुबर को ही करते
हैं या तब करते हैं जब कोइ फ़िल्मकार गांधी विचारधारा
पर फ़िल्म बनाता है ।

खैर मैं इतना महान तो नहीं कि गांधी दर्शन की समीछा
कर सकूँ । लेकिन क्या ये सच है कि है कि हमें उनकी
ज़रूरत है या सिर्फ़ सार्वजनिक अवकाश में मंच पर एक
औपचारिक संगोष्ठी आयोजित कर हम अपने दायित्व से
छुट्कारा पा लेते हैं ।

गांधी जी के बारे में नई पीढी से बात करो तो वे उन्हें
नापसंद करते हैं , और कह्ते हैं कि वे कायर थे क्योंकि
उन्होंने अहिंसा का मार्ग अपनाया । उन्हें सुभाष चन्द्र बोस
, भगत सिंह , चन्द्रशेखर आजाद ज्यादा पसन्द हैं वे
१८५७ के नायकों को अपना आदर्श मान सक्ते हैं लेकिन
गांधी जी को नहीं । इसके पीछे कारण ये नहीं कि गांधी
जी में उनकी विचारधारा में कोइ खोट है , बल्कि गांधी जी
के सपनों का भारत (रामराज्य) पीछे रह गया , वहीं
उनकी मृत्यु के साथ । तब भी वे अकेले थे आज भी वे
अकेले हैं , और भरत वहाँ से यहाँ तक एक बिन माँ के
बेटे की तरह आया है , ममता ,स्नेह व मूल्यों से वंचित ।
बिना सही पालन पोषण के ये मानसिक रोगी बन गया है
और इसके बाप (गांधी जी के अघोषित राजनैतिक उत्तराधिकारी) को कुछ होश नहीं है ।

आज हमारे देश को गांधी जी की सबसे ज्यादा ज़्रूरूरत है ।
हमारे सामने पुन: विभाजन जैसी स्थतियां पैदा हो रही हैं
अलगाववाद एक प्रमुख वैचारिक समस्या बन चुका है चाहे वो
कश्मीर को लेकर हो या नक्सलवाद को लेकर ।
आज हमारे पास अहिंसा रूपी संजीवनी औषधि तो है परन्तु
गांधी जी जैसा वैद्य नहीं जो इस बीमार देश की नब्ज़ पकड
सके................



कृपया अपने विचार दें.............

01 अक्तूबर 2010

सात मई 2009

कुछ समय से हम प्रेम पथ से थोडा सा विचलित हो गये थे...
लीजिये एक और कविता प्रेम को समर्पित.......................

हमारे यँहा काव्य (पद्य) से सम्बन्धित प्रसंग दिया जाताहै.........
यँहा एक हताश प्रेमी के आकर्षण और उसकी असमंजस की
स्थति का चित्रण है जो अपनी भाव विभोर नायिका के पीछे
जा रहा है पूरे रास्ते वो उससे अपने मन की बात नहीं
कह पाता है..............

मैं पागल सा खो गय था कहीं
उस गुलाबी अभ्र में जो था तुममें कहीं
उन आँखों में जो थी सपनीली
उस अहसास में जिसे जलाया था मैंने
पर दी थी आग तूने अपनी गर्माहट से
मिली थी तू पर देख ना पाया उस
तपिश को जो दबी सी थी कहीं
तू थी अकेली बोल ना पाया था कुछ
डर्गया था कहीं ये ख्वाब सच ना हों
मंजिल नज़दीक थी डर गया था कहीं
राह खत्म ना हो जायें
क्योंकि चलतीं हैं रहें मंजिल नहीं
दिखते हैं ख्वाब हकीकत नहीं




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आखिर भारत जीत गया!!!!!!!!!

आखिर तनाव का वो माहौल , वो वक्त गुजर ही गया...........
हमने सच कर दिखाया की कैसे हम धुंधले अतीत की बुनियाद
पर ,वर्तमान परिस्थितियों को समझते हुए अपनी आने वाली पीढी को विवाद रहित भविष्य दे सकते हैं ।
मुझे लगता है कि कल जिस तनाव के साये से भारत गुजरा है ,
प्रत्येक व्यक्ति समाचार चैनलों पर, रेडियो समाचारों पर झुका
पडा था , क्या वो इस फ़ैसले का इन्तजार कर रहा था कि
हिन्दू जीतेंगे या मुसलमान ?
नहीं.................
वो इन्तजार कर रहा था कि कौन पहले हारेगा..............
लेकिन हमारी न्यायपालिका ने ये सिद्ध कर दिया कि हम एक
लोकतन्त्र हैं और आज भी भारत के अंदर अल्पसंख्य्कों के
अधिकार सुरछित हैं....................
हिन्दू और मुसलमान दोनों ही जीते..........कोइ नहीं हारा
भारत जीत गया.............
कितना भाव विभोर द्रश्य होगा वो जब पाक नमाज़ की आज़ानें
मंदिर के घंटों के साथ गूँज़ा करेंगी...............
ये राम और रहीम के मिलन का तीर्थ स्थल होगा
मेरी हिन्दू भाइयों से गुजारिश है कि वे मस्जिद निर्माण में सामूहिक श्रमदान करें..............मेरी मुस्लिम भाइयों से गुजारिश है कि वे मंदिर निर्माण में सामूहिक श्रमदान करें..............
मेरा ये भारत सदैव सभी खुशहली और अमन के रास्ते पर चले.....................

आमीन

30 सितंबर 2010

शक्तिशाली कौन ?

ये बात आज से चार साल पहले की है , आज भी
डायरी में पढ कर एसा लगता कि उस समय शायद
किसी बुद्धीजीवी की आत्मा प्रवेश कर गयी थी..............
आप भी बुद्धीजीवी के विचारओं का आन्नंद लें


" आज मैं सोच रहा था कि नियम क्या होते हैं?
नियमों में बंधा व्यक्ति या समूह ही सफ़लता प्राप्त
कर पाता है । शायद इन्सान जो नियम बनाता
है प्रकृति उसे तोड्ने की कोशिश करती है लेकिन
जीत हमेशा शक्तिशाली की होती है। इच्छाशक्ति
यदि प्रकृति को पराजित कर सकती है ,तो कभी
या ज्यादातर, हार भी सकती है। परन्तु सफ़ल
या महान वही कहलाते हैं जो अपने नियमों पर
चलते हैं। लेकिन फ़िर भी कुछ सवाल रह जाते
हैं जैसे "
क्या नियमों का टूट्ना अथवा प्रकृति की
बाधाओं द्वारा इच्छाशक्ति का हार जाना नियमों के
बनने से जुडा होता है ?
बाधओं के आगे हार जाना अपने रास्ते चलने या
नहीं चलने के ऊपर होता है ?
यह निर्णय किसके द्वारा संचालित होता है , प्रकृति
के द्वारा अथवा अपनी इच्छाशक्ति के द्वारा ?
हम ये निर्णय लेने के लिये स्वतंत्र हैं या नहीं ?

29 सितंबर 2010

जीवन चलने का नाम

सभी को सादर प्राणाम !
ब्लागों की दुनिया में आगमन कविता के साथ
आआपको पसन्द आयेगी यदि पसन्द ना भी आये तो क्रपया निराश मत कीजियेगा शा है कि क्योंकि ये ह्रदय के उदगार हैं

तेरे अगोश मैं गुजर गयी वो रात यूँ ही
तुने सोने ना दिया आखिर सोना किसे था
पाना था तुझे तेरे अह्सास के लिये
जागा था रात भर तेरे नूर को आखों में भरने के लिये
तेरी आंखे भी देखती थीं कभी मुझ्को कभी शून्य में
शायद खोजती थीं वो सब जो मैंने पा लिया था
और उसका था कभी , अहसास था तुझे भी
कि पाया था तुझको बहुत सन्घर्ष के बाद तभी तो
तेरे हाथ रेंगते थे मेरे शानों पर , बताने मुझे
कि तू मेरे साथ है , शायद इससे बेहतर तरीका ना था
जताने का कि इस गर्माहट में छुपे हुये हैं अरमान तेरे प्यार के
कुछ इस अन्दाज में चूमा था मेरी पेशनी को तूने कि
उतर गया था अन्दर तक तेरे लबों का
कह रहीं थीं तेरी आंखे मुझसे जो ज़ुबां न कह सकी थी
बता रहीं थीं कि तूने माना था फ़ैसला किस्मत का
देखतीं थीं मेरी तरफ़ ऎसे, जैसे कि देखा ना था मुझे कभी
सांसे चल रहीं थीं इस कदर मानो रोक रहीं हों किसी तूफ़ान को
दूरीयां दम तोड रहीं थीं हर पल जैसे खत्म हो जाना चाह्तीं हों
प्यार का सैलाब सा उमड आता था , तुम्हारे हर स्पर्श में
दोनो जिस्म एक जान हो जाना चाह्ते थे, जैसे कि
दोनों में एक ही जान हो, अधूरे हों एक दुजे के बिना