03 अक्तूबर 2010

अंजानी राहों पर .....


कभी कभी हम ज़िंदगी में ऎसे मोड पर आ जाते
जब ये ही स्पष्ट नहीं होता कि क्या कर रहे हैं ,
क्यों कर रहे हैं कहाँ जा रहें...........
प्रस्तुत हैं कुछ मौलिक संवेदनायें.....

ना जाने क्यों मैं याद करता हूँ
फ़िर अचानक भूल जाता हूँ ।
आगे बढता अनजान रास्तों पर
पीछे मुढ कर देखता हूँ
देखता हूँ उस निशान को जो आगाज़ था
ब धुंधला गया , मुरझा गया ।
जो था कभी सुंदर , स्वनिल
ख्वाब जो थे अनबुने उधाड्ने लगा हूँ ।
पर न जाने क्यों पीछे मुड कर देखता हूँ
देखता हूँ आगे जब उस क्षितिज को
जो है शायद भ्रम , पर है शायद
पहुँच पाउंगा या नहीं , पर है क्षितिज
बड्ता जाता हूँ उसकी ओर पाने के लिये
फ़िर पीछे मुडकर देखता हूँ पाता हूँ कि
आगाज़ कहीं खो गया है धुंधला भी नहीं है
दिखता ही नहीं है पता नहीं कभी था या नहीं
ना जाने क्यों मैं याद करता हूँ
फ़िर अचानक भूल जाता हूँ ।
आगे बढता हूँ अंजानी राहों पर ,
अनजाने क्षितिज की ओर , भ्रम की ओर
और पाता उस क्षितिज को उतना ही दूर
फ़िर पीछे मुड कर देखता हूँ आगाज़ की ओर
जो कभी था , शायद पर भ्रम लगता है ।
ये भ्रम जो सत्य था , उस भ्रम से अलग है
पर ये है तो "शायद" ही
फ़िर भूल कर आगाज़ से आगे बड्ता हूँ
क्षितिज की ओर जो कहीं है शायद..........