18 अक्तूबर 2010

खुद रो जाता हूँ ।





हो तुम दूर मुझसे , मिल नहीं पाता हूँ ।
बातें तो हो जातीं हैं लेकिन देख नहीं पाता हूँ ।
बिन तुम्हारे , यादों के सहारे पागल सा हो जाता हूँ ।
ख्वाबों के आशियाँ से उन पलों को खोज लाता हूँ
जहाँ अपनी रूह के नज़दीक तुम्हें पाता हूँ ।
सुबह सुबह मंदी धूप में चलते देख
तुम्हारी परछाई पीछे पीछे चल देता हूँ , और
तुम्हें न पाकर ठगा सा रह जाता हूँ ।
चला जाता उन हलके हलके सफ़ेद बादलों में
जहाँ खडी हो तुम लिये अपनी बाँहों का हार ,
लेकिन तुम्हें वहाँ न पाकर मायूस सा हो जाता हूँ ।
पाकर नज़दीक तुम्हें छूने की मैं कोशिश करता हूँ
हाथ आती है एक बेदर्द हवा और मैं तन्हा रह जाता हूँ ।
देखता हूँ तुम्हारी तस्वीर को , तुममें खुद को पाता हूँ
आइने में अक्स भी तुम्हारा ही बनाता हूँ ।
जिन रास्तों पर कभी चले थे साथ साथ , हाथों में लिये हाथ
अब वहाँ से अकेले गुजर जाता हूँ ।
जिन रास्तों पर करता था तुम्हरा इंतज़ार
उन रास्तों को भी तुम्हारी राह तकता हुआ पाता हूँ ।
लेता हूँ जब साँसे सिर्फ़ जीने के लिये
ज़िन्दगी को तुम्हारा कर्जदार पाता हूँ ।
दूर खडी जब देखती हो मेरी ओर सज़ल आँखों से
पास आकर आँसू पौंछ्ने की कोशिश करता हूँ
और खुद रो जाता हूँ ।