01 अक्तूबर 2010

सात मई 2009

कुछ समय से हम प्रेम पथ से थोडा सा विचलित हो गये थे...
लीजिये एक और कविता प्रेम को समर्पित.......................

हमारे यँहा काव्य (पद्य) से सम्बन्धित प्रसंग दिया जाताहै.........
यँहा एक हताश प्रेमी के आकर्षण और उसकी असमंजस की
स्थति का चित्रण है जो अपनी भाव विभोर नायिका के पीछे
जा रहा है पूरे रास्ते वो उससे अपने मन की बात नहीं
कह पाता है..............

मैं पागल सा खो गय था कहीं
उस गुलाबी अभ्र में जो था तुममें कहीं
उन आँखों में जो थी सपनीली
उस अहसास में जिसे जलाया था मैंने
पर दी थी आग तूने अपनी गर्माहट से
मिली थी तू पर देख ना पाया उस
तपिश को जो दबी सी थी कहीं
तू थी अकेली बोल ना पाया था कुछ
डर्गया था कहीं ये ख्वाब सच ना हों
मंजिल नज़दीक थी डर गया था कहीं
राह खत्म ना हो जायें
क्योंकि चलतीं हैं रहें मंजिल नहीं
दिखते हैं ख्वाब हकीकत नहीं




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2 टिप्‍पणियां:

DR.ASHOK KUMAR ने कहा…
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gyaneshwaari singh ने कहा…
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